शताब्दी वर्ष निमित्त संघ की ‘बारह-खड़ी’ भाग -2
*विनोद देशमुख
डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार को संघ की स्थापना का विचार ब्रिटिश दासता और महात्मा गांधी की ओटोमन राज्य के लिए खिलाफत आंदोलन मुस्लिम तुष्टिकरण नीति के कारण पैदा हुआ था. उन्होंने महसूस किया कि भारत वर्ष की विशाल हिन्दू आबादी सदियों की मुस्लिम आक्रांताओं और अंग्रेजों की दासता से अपना आत्मसम्मान खोती जा रही है. उसकी उपेक्षा कर तुर्की के खलीफा की कुर्सी बचाने के लिए हिन्दुस्तान में खड़ा किए जा रहे खिलाफत आंदोलन का कोई औचित्य नहीं है. हेडगेवार जी मध्य प्रांत के सम्मानित कांग्रेस नेता भी थे. उन्होंने खिलाफत आंदोलन का विरोध किया. गांधी जी को समझाने की कोशिश भी की. लेकिन उनकी एक न चली.
इस प्रकरण ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कांग्रेस में रह कर हिन्दुओं के हितों की रक्षा संभव नहीं है. कांग्रेस और गांधी जी से मिली निराशा से ही उनके मन में यह धारणा बनी कि देश के हिन्दुओं को जागृत करना जरूरी है और इसके निमित्त हिंदू संगठन की आवश्यकता है. उन्होंने फिर इस विचार के साथ जुड़े अपने लोगों के साथ मिल कर शाखा के माध्यम से काम शुरू किया और आपसी विचार-विमर्श के बाद 100 वर्ष पहले ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ को मूर्त रूप दिया.
एक प्रतिशत भारतीयों को स्वयंसेवक बनाने का का लक्ष्य
नागपुर के भोंसले राज्य को अंग्रेजों द्वारा छीन लिए जाने का आक्रोश भी नागपुर सहित मध्य प्रांत की जनता में काफी गहरा था. उन्होंने लोगों को समझाया कि यदि अंग्रेजों से आजादी पुनः प्राप्त करनी है (अर्थात स्वतंत्रता के लिए) तो निष्ठावान स्वयंसेवकों की सेना खड़ी करनी होगी. इस संबंध में संघ के गहन अध्येता दिलीप देवधर कहते हैं – ”उन्होंने देखा कि इंग्लैंड की जो एक प्रतिशत अंग्रेज आबादी भारत पर शासन कर रही थी, अंग्रेजों ने यह सफलता इन तीन गुणों के आधार पर प्राप्त की थी, देश के प्रति निष्ठा, अनुशासन और आत्म-बलिदान. यही तीनों गुण भारत के हिन्दुओं में भी जगाना आवश्यक था. डॉ. हेडगेवार ने इसी उद्देश्य को लेकर संघ के कार्य को आगे बढ़ाना शुरू किया.”
उन्होंने संघ की शुरुआत इस स्वप्न के साथ की थी कि “यदि हम एक प्रतिशत भारतीयों को भी प्रशिक्षित स्वयंसेवक बना दें तो हम अंग्रेजों से राज्य पुनः प्राप्त कर सकेंगे और अपना देश स्वयं चला सकेंगे. और अपने जीवन के पंद्रह वर्षों (1925 से 1940) के कार्यकाल में उन्होंने देश भर में सात सौ शाखाएं और एक लाख स्वयंसेवक जुटाने में भी सफलता प्राप्त कर ली.”
संघ परिवार का ऐसे किया विस्तार
इस काल खंड में डॉक्टर साहब ने संघ से जिन मनीषियों और निष्ठावान स्वयंसेवक को जोड़ा, उनमें का वास्तविक विस्तार गोलवलकर गुरुजी ने ही किया था. माधव सदाशिवराव गोलवलकर (19 फरवरी 1906 – 5 जून 1973) एक ऐसे मनीषी थे, जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अर्थात अर्धसैनिक संगठन के दूसरे सरसंघचालक (“प्रमुख”) के रूप में कार्य किया. गोलवलकर गुरुजी को संघ के सबसे प्रभावशाली और प्रमुख हस्तियों में से एक माना जाता है. वह हिंदू राष्ट्र (हिंदू राष्ट्र) की अवधारणा को सामने रखने वाले पहले व्यक्ति थे, जिसके बारे में माना जाता है कि उनकी हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा से ही अखंड भारत की अवधारणा भी विकसित हुई.
नागपुर के समीप रामटेक में जन्में गुरुजी डॉक्टर साहब के सतत प्रयासों से 1937 में संघ से जुड़े और डॉक्टर साहब के निधन के बाद वे संघ के दूसरे सरचालक (प्रमुख) बने. उन्होंने लगातार तैंतीस वर्षों (1940 से 1973) तक देश का भ्रमण किया, मानो उनके पैर में कांटा चुभ रहा हो. उन्होंने देश के प्रत्येक भाग में वर्ष में कम से कम दो बार (एक बार सरकारी अधिकारी के रूप में) की गति से पूरे भारत का भ्रमण किया और संघ कार्य का तीव्र गति से विस्तार किया. वे शाखाओं और स्वयंसेवकों की संख्या को दस गुना (अर्थात 7 हजार शाखाएँ, 10 लाख स्वयंसेवक) बढ़ाने में भी सफल रहे.
गुरु जी ने ‘संघ परिवार’ बनाया
परन्तु जब उन्हें लगा कि डॉ. हेडगेवार के एक प्रतिशत लक्ष्य को प्राप्त करना आसान नहीं है, तो उन्होंने ‘संघ परिवार’ का प्रयोग किया. स्वयंसेवकों के मार्गदर्शन में उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में संस्थाओं और संगठनों की स्थापना का बीड़ा उठाया और देश भर में लाखों स्वयंसेवक एवं समर्थक प्राप्त किए. आज संघ परिवार में समाज के शिक्षा, सेवा, समाज हित, राजनीति, मजदूर हित आदि क्षेत्र में सक्रिय तीन दर्जन से अधिक संगठन कार्यरत हैं और उनमें से अधिकांश श्री गुरुजी के समय में ही आरंभ हुए थे. जिससे उनके कार्य के विस्तार और गति का अनुमान लगाया जा सकता है.
यह सच है कि संघ की शुरुआत एक हिंदू संगठन के रूप में हुई थी. हालांकि, हेडगेवार जी की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में सभी भारतीय शामिल थे. उन्होंने संघ की स्थापना इस विश्वास के साथ की थी कि यद्यपि देश के अलग-अलग सम्प्रदायों की पूजा पद्धतियां भिन्न थीं, फिर भी व्यापक अर्थों में प्रत्येक भारतीय हिंदू है और उसका ‘अपना’ राज्य हिंदू राष्ट्र में ही होना चाहिए.
पहले हम अपना घर ठीक करें
इस अवधारणा की नींव को मजबूत करने के लिए श्री गुरुजी ने ‘पहले हम अपना घर ठीक करें’ के सूत्र का प्रयोग किया. इसलिए उन्होंने हिंदू धर्म पर ध्यान केंद्रित किया. वे स्वयं आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे. वे पश्चिम बंगाल में रामकृष्ण परमहंस के सारगाछी आश्रम में स्वामी विवेकानंद के गुरु बंधु स्वामी अखंडानंद से दीक्षा ली थी और उनके शिष्य बन गए थे. यदि वे वहां से वापस नहीं लौटे होते तो वे रामकृष्ण मठ के स्वामी बन जाते. लेकिन, यह हमारे हिंदुओं और संघ का सौभाग्य है कि वे नागपुर लौट आए और अपना जीवन संघ को समर्पित कर दिया.
उन्होंने जानबूझकर केवल उन लोगों को संघ की ओर आकर्षित करने का प्रयास किया, जो जन्म और सांसारिक कारणों से हिंदू थे. विरोधियों की जहरीली आलोचनाओं को पचाकर, श्री गुरुजी ने संघ के बीज को एक वटवृक्ष में बदल दिया. अगले 50 वर्षों में, संघ ने एक प्रतिशत का लक्ष्य प्राप्त करके और संस्थापकों के स्वप्न को साकार करके अपनी शताब्दी मनाई. इसमें कोई संदेह नहीं कि संघ एक ऐसा महान वट वृक्ष बन गया है.
# विनोद देशमुख (वरिष्ठ पत्रकार).